अजमेर में मुगल वास्तुकला
मुगल साम्राज्य की स्थापना बाबर ने 1526 में की। मुगलों के समय भारत की वास्तुकला प्रमुख थी। भारत के कई शहरों में मुगल वास्तुकला का विकास हुआ। अजमेर भी इससे अछूता नही था। जब तक मुगल वास्तुकला अजमेर में पहुंची थी तब मुगलों ने अपनी सर्वोच्च और प्रमुख पहचान स्थापित कर ली थी। अकबर के समय भारत ने दैनिक जीवन से संबंधित मामलों में शासन और प्रशासन की एकरूपता देखी थी। अकबर के समय फ़तेहपुर सीकरी, आगरा और इलाहाबाद में कई वास्तुकलाओं का निर्माण हुआ। अकबर की ख्याति वास्तुकला के संबंध में दूर-दूर तक पहुँच गई थी। इस प्रकार अजमेर के प्रारूप और मुगल साम्राज्य में इसके महत्व में गिना जाता था। अकबर के दौरान अजमेर में वास्तुकला धार्मिक निर्माणों पर आधारित संभावित रूप से सबसे महत्वपूर्ण थी।
अजमेर में मुगल वास्तुकला वास्तव में अकबर के तहत वास्तव में लाभान्वित हुई थी। उस समय मुइनूद्दीन चिश्ती की दरगाह के पास मस्जिदों का निर्माण हुआ। अकबर के संरक्षण में अजमेर की मुगल वास्तुकला को आशाजनक ऊंचाइयों पर ले जाया गया था। जहांगीर के दौरान अजमेर में वास्तुकला का भी उनके पिता की तर्ज पर बहुत पालन किया गया था।
जहाँगीर ने अजमेर में जल निकायों द्वारा विभिन्न आनंद मंडप और विनम्र महलों का निर्माण किया था, जिनमें से एक पुष्कर झील है। धार्मिक क्षेत्र में जहांगीर के हाथों अजमेर में मुगल वास्तुकला को इस रूप में बनाया गया था। अजमेर में जहांगीर की मुगल वास्तुकला मंडपों और महलों में अधिक स्पष्ट थी।
शाहजहाँ के अधीन अजमेर में मुगल वास्तुकला में एक जामा मस्जिद को भी जोड़ा गया था, कभी-कभी इसकी तुलना फतेहपुर सीकरी में प्रसिद्ध जामा मस्जिद से की जाती थी, जो स्वयं अकबर ने बनवाई थी थी। शाहजहाँ अपनी रचनाओं में काफी सावधानीपूर्वक और नियमित था। शाहजहाँ के दौरान अजमेर में वास्तुकला उसके और उसके उप-साम्राज्यीय रूप से सहभागी रईसों द्वारा एक उत्कृष्ट कृति थी। मुईन उद-दीन चिश्ती की दरगाह को भी एक नियमित और व्यवस्थित रूप से सुचारू रूप से नया रूप दिया गया था।
हालांकि औरंगजेब ने कभी भी अपने वंश या अपने देशवासियों की बेहतरी की ओर ध्यान नहीं दिया। इस समय अजमेर में मुगल वास्तुकला को धर्म के साथ-साथ महलों या उद्यानों के अन्य चरणों में भी भारी नुकसान हुआ। औरंगजेब के समय में अजमेर में मुगल वास्तुकला ज्यादातर संगमरमर के मकबरों के निर्माण तक ही सीमित थी। औरंगजेब के दौरान मुईन उद-दीन चिश्ती की दरगाह भी महत्वहीन हो गई थी।