प्राचीन भारतीय इतिहास : 5 – सिंधु घाटी सभ्यता की जीवन शैली तथा रहन सहन
नगर व्यवस्था
सिन्धु घाटी सभ्यता विश्व की प्राचीनतम नगर सभ्यताओं में से एक है। सिन्धु घाटी सभ्यता में नगरों का निर्माण काफी कुशल व सुनियोंजित तरीके से किया गया था। इसमें जल निकासी की उचित व्यवस्था थी और यह नगर ग्रिड पद्धति के आधार पर बना था। नगरों के निर्माण में पक्की ईंटो का निर्माण दृश्यमान होता है, नगर में नालियाँ ईंटों व पत्थरों से ढकी होती थी, इसके साथ-साथ चूना व जिप्सम भी उपयोग में लाया जाता था।
सिन्धु घाटी सभ्यता में नगरों के अव्शेह्स से पुर और पश्चिम दिशा में दो टीले मिले हैं। पश्चिमी भाग छोटा है, परन्तु वह ऊंचाई पर स्थित है। जबकि पूर्वी हिस्सा बड़ा है परन्तु वह कम ऊंचाई युक्त स्थान में स्थित है। ऊंचाई वाले क्षेत्र को नगर दुर्ग और निचले क्षेत्र को निचला नगर कहा जाता है। इन दोनों हिस्सों के चारों ओर पक्की ईंटों की दीवार बनाई गयी थी।
सिन्धु घाटी सभ्यता के नगर काफी सुनियोजित व सुव्यवस्थित थे, यह नगर आयताकार थे, यह मुख्य सड़कों और चौड़ी गलियों पर आधारित थे। सड़कें एक दुसरे को समकोण बनाते हुए काटती थीं। नगर को कई भागों में बांटा गया था। सड़कें मिटटी से बने गयी थी, जबकि सड़क के दोनों ओर पक्की ईंटों से नालियों का निर्माण किया गया था। इन नालियों में थोड़ी-थोड़ी दूर पर “नर मोखे” भी बनाये गए थे।
भवन व वास्तुकला
सिन्धु घाटी सभ्यता में विशालकाल भवनों के संकेत मिलते हैं, प्रमुख विशाल भवन स्नानागार, अन्नागार, सभा भवन, पुरोहित आवास इत्यादि थे। मोहनजोदड़ो का सबसे महत्वपूर्ण सार्वजानिक स्थान विशाल स्नानागार है, इसका जलाशय दुर्ग के टीले में स्थित है। यह स्नानागार 11.88 मीटर लम्बा, 7.01 मीटर चौड़ा और 2.43 मीटर गहरा है। इस स्नानागार के निर्माण में पक्की ईंटो का उपयोग किया गया है, इन ईंटों को जोड़ने के लिए जिप्सम और मोर्टार का उपयोग किया गया है। सिन्धु घाटी सभ्यता का सबसे बड़ा भवन अन्नागार है। अन्नागार की लम्बाई 45.71 मीटर तथा चौड़ाई 15.23 मीटर है।
सिन्धु घाटी सभ्यता में बहुत सारे स्तंभों से निर्मित एक सभागार और एक आयताकार इमारत भी मिले हैं। यह माना जाता है कि इन इमारतों का उपयोग प्रशासकीय कार्य के लिए किया जाता था। हड़प्पा के अधिकतर साक्ष्य दुर्ग के उत्तर में मिले हैं।यही से अन्नागार (6-6 की दो पंक्तियों), मजदूरों के अवाद और गोल चबूतरे मिले हैं। यहाँ अन्नागार दुर्ग के बाहर स्थित है। सिन्धु घाटी सभ्यता में जुदाई के लिए मिट्टी के गारे और जिप्सम के मिश्रण का उपयोग करते थे।
आवासीय भवन
आवासीय भवनों का निर्माण भी बड़ी कुशलतापूर्वक किया गया था, सभी आवासों के बीच में एक आँगन होता था, और आँगन के चारों ओर कमरे, रसोईघर, स्नानागार व अन्य कक्ष होते थे। सामान्यतः स्नानागार गली की ओर बने होते थे। आवसीय भवनों के दरवाज़े मध्य भाग की अपेक्षा किनारों पर बनाये जाते थे। ईंटों के निर्माण का अनुपात 4:2:1 निश्चित था।
सभी आवासीय भवनों में स्नानागार, कुआँ व जल निकासी की व्यवस्था होती थी। भवनों के निर्माण में एकरूपता थी। सिन्धु घाटी सभ्यता के आवासीय भवनों की एक विशिष्टता यह है की इसमें घरों के दरवाज़े मुख्य सड़क की बजाय पीछे की ओर खुलते थे, ऐसा शोर से बचने के लिए किया जाता था। लोथल में ही खिड़कियाँ बाहर की ओर खुलती थीं। मकानों का आकार छोटा होता था, इनमे आमतौर पर 4-5 कमरे होते थे और कई स्थानों पर दो मंजिला मकानों के भी अवशेष मिले हैं।
सिन्धु घाटी सभ्यता में कृषि
सिन्धु घाटी सभ्यता में कालीबंगा और बनावली से कृषि के साक्ष्य मिले हैं, जबकि मोहनजोदड़ो और हड़प्पा से अन्नागार प्राप्त हुए हैं। कृषि सिन्धु घाटी सभ्यता में प्रमुख व्यवसाय था। यहाँ पर चावल, गेहूं, मटर, जौ, टिल सरसों, कपास और बाजरा की खेती की जाती है। सिन्धु घाटी सभ्यता में सर्वप्रथम कपास की खेती की गयी। सिन्धु घाटी सभ्यता में तरबूज, नारियल, अनार, नीम्बू और केला जैसे फल से भी परिचित थे।
सिंघु घाटी सभ्यता में कृषि काफी सामान्य तरीके से होती थी, यहाँ से अधिक विकसित औज़ार प्राप्त हुए हैं। सिन्धु घाटी सभ्यता में फावड़ा व कुदाल इत्यादि के साक्ष्य नहीं मिले हैं, कालीबंगा और बनावली में हल से जुते हुए खेत के साक्ष्य मिले हैं, इसलिए यह अनुमानित है कि सिन्धु घाटी सभ्यता में केवल हल से ही कृषि कार्य किया जाता था। सिन्धु घाटी सभ्यता के कृषक संभवतः उर्वरक से परिचित नहीं थे, यहाँ पर न तो सिंचाई के लिए नहर और न ही उर्वरक के साक्ष्य मिले हैं।
सिन्धु घाटी में सर्वप्रथम कपास की खेती की गयी, ग्रीक कपास को सिंदोंन कहते थे। हालांकि सिन्धु घाटी में नहरों के साक्ष्य नहीं मिले हैं, परन्तु धौलावीरा में एक जलाशय के संकेत प्राप्त हुए हैं। अफ़ग़ानिस्तान के शोर्तुघई में नहरों के संभावित अवशेष मिले हैं। सिन्धु घाटी सभ्यता में चावल के खेती के साक्ष्य लोथल और रंगपुर से मिले हैं।
सिन्धु घाटी सभ्यता में पशुपालन
सिन्धु घाटी सभ्यता के लोग गाय, बैल, भैंस, बकरी, भेड़, सूअर, कुत्ता, बिल्ली, हाथी व गैंडे इत्यादि पशुओं से परिचित थे। सिन्धु घाटी सभ्यता में मोहनजोदड़ो, लोथल, राणाघुडई और सुरकोतदा से घोड़े के अवशेष भी प्राप्त हुए हैं। जबकि कालीबंगा से ऊँट के अवशेष मिले हैं।
बाघ के बारे में जानकारी केवल सिंध प्राप्त से ही मिलती है, इसके अतिरिक्त कालीबंगा के एक मुहर पर बाघ का चित्र अंकित है। सिन्धु घाटी सभ्यता में बन्दर, खरगोश, हिरण, मुर्गा, मोर, तोता और उल्लू के खिलौने प्राप्त हुए हुए हैं, जिससे यह अनुमान लगाया जाता है कि सिन्धु घाटी सभ्यता के लोग इन पशु-पक्षियों से परिचित थे।
सिन्धु घाटी सभ्यता में व्यापारिक गतिविधियाँ
सिन्धु घाटी सभ्यता के व्यापार बड़े पैमाने पर किया जाता था, व्यापार न केवल क्षेत्रीय स्तर पर बल्कि विदेशी राज्यों के साथ भी किया जाता था। सिन्धु घाटी सभ्यता में व्यापारिक गतिविधियों की जानकारी विभिन्न स्थानों पर प्राप्त हुई मुहरों से मिलती है। व्यापार की दृष्टि से मोहनजोदड़ो, हड़प्पा और लोथल में विशाल अन्नागार निर्मित किये गए थे। व्यापार के लिए सिन्धु घाटी सभ्यता में मानकीकृत माप-तोल की व्यवस्था की गयी थी।
सिन्धु घाटी सभ्यता का क्षेत्रीय विस्तार भारतीय महाद्वीप में ही होता था, इसमें प्रमुख व्यापारिक साझेदार क्षेत्र कर्नाटक, राजस्थान, गुजरात और बलूचिस्तान थे। सिन्धु घाटी सभ्यता में व्यापार के लिए धातु की मुद्रा अथवा सिक्कों का उपयोग नहीं किया जाता था, बल्कि वस्तु विनिमय प्रणाली का उपयोग किया जाता था।
सिन्धु घाटी सभ्यता काविदेशी व्यापार मेसोपोटामिया, अफ़ग़ानिस्तान, फारस की खाड़ी और मध्य एशिया के क्षेत्र से होता था। मेसोपोटामिया के अभिलेखों मेंमेलुहा नामक क्षेत्र के साथ व्यपारिक गतिविधियों का उल्लेख किया गया है। इसमें मेलुहा से तात्पर्य सिन्धु घाटी क्षेत्र से है। दिलमन और माकन के साथ व्यापार के साक्ष्य पुरालेखों में मिलते हैं। सिन्धु घाटी सभ्यता में मेसोपोटामिया की बहुत से मुहरें प्राप्त हुई हैं, फारस की खाड़ी से बहरीन, मेसोपोटामिया के उर, किश, टेल, अस्मर, टेपे और निप्पुर से सिन्धु घाटी सभ्यता की मुहरें प्राप्त हुई हैं, जिससे सिन्धु घाटी सभ्यता के विदेशी व्यापार की पुष्टि होती है। सिन्धु घाटी सभ्यता की मुहरों पर एक सींग वाले पशु की आकृति और सिन्धु लिपि अंकित है।
मेसोपोटामिया की एक बड़ी गोलाकार मुहर मोहनजोदड़ो से प्राप्त हुई है, और एक छोटी मुहर लोथल से मिली है। सिन्धु घाटी सभ्यता में यातायात का मुख्य साधन बैलगाड़ी थी, इसमें में दो अथवा 4 ठोस पहिये होते थे। सिन्धु घाटी सभ्यता के प्रमुख व्यापार केंद्र लोथल, भगतराव, मुंडीगाक, बालाकोट, सुतकागेंडोर, मालवन और डाबरकोट थे।
सिन्धु घाटी सभ्यता में आयात की जाने वाली वस्तुएं व उनके क्षेत्र
आयात की गयी वस्तुएं | क्षेत्र |
सोना | अफ़ग़ानिस्तान, फारस और कर्नाटक |
चांदी | ईरान, अफ़ग़ानिस्तान, मेसोपोटामिया |
ताम्बा | खेतड़ी (राजस्थान), बलूचिस्तान |
टिन | ईरान, अफ़ग़ानिस्तान |
सेलखड़ी | बलूचिस्तान, राजस्थान, गुजरात |
हरित मणि | दक्षिण भारत |
शंख एवं कौड़ियाँ | सौराष्ट्र (गुजरात), दक्षिण भारत |
नील रत्न | बदख्शां (अफ़ग़ानिस्तान) |
शिलाजीत | हिमालय क्षेत्र |
फिरोजा | ईरान |
लाजवार्द | बदख्शां, मेसोपोटामिया |
गोमेद | सौराष्ट्र (गुजरात) |
स्टेटाइट | ईरान |
स्फटिक | दक्कन पठार, ओडिशा, बिहार |
स्लेट | काँगड़ा (हिमाचल प्रदेश) |
सीसा | ईरान, राजस्थान, अफ़ग़ानिस्तान, दक्षिण भारत |
सिन्धु घाटी सभ्यता की सामाजिक स्थिति
सिन्धु घाटी सभ्यता के समाज मातृ प्रधान था, यहाँ पर मातृदेवी की पूजा की जाती थी, और कई मुहरों पर मातृदेवी के चित्र का अंकन भी किया गया है।सिन्धु घाटी सभ्यता में समाज व्यवसाय के आधार पर विभिन्न वर्गों में बांटा गया था जैसे पुरोहित, व्यापारी, अधिकारी, शिल्पकार, जुलाहा और श्रमिक। सिन्धु घाटी सभ्यता में योद्धाओं के संकेत नहीं मिले हैं, समाज में दस्तकारों और कुम्भकारों को विशेष स्थान प्राप्त था। इस दौरान संभवतः दास प्रथा अस्तितिव में थी।
सिन्धु घाटी सभ्यता में लोगों की जीवन शैली
सिन्धु घाटी सभ्यता में विभिन्न फसलों की खेती की जाती थी, इन्ही फसलों का उपभोग भी किया किया जाता था। सिन्धु घाटी के लोग शाकाहारी के साथ-साथ मांसाहारी भोजन का सेवन भी करते थे। सिन्धु घाटी सभ्यता में गेहूं, जौ और खजूर प्रमुख खाद्य पदार्थ थे, इसके अतिरिक्त भेड़, सूअर व मछली की मांस का उपभोग भी किया जाता था।मुख्यतः बर्तन मिट्टी से निर्मित होते थे। इस दौरान लोगों को समुचित धातु ज्ञान भी था, इसलिए कई घरेलु उपयोग की वस्तुओं का निर्माण धातुओं से किया जाता था। कलश, थाली, कटोरा, गिलास चम्मच धातु से निर्मित होते थे।सिन्धु घाटी सभ्यता में सबसे पहले कपास के खेती आरम्भ हुई। सिन्धु घाटी सभ्यता में सूती व ऊनी वस्त्र प्रचलित थे। सिन्धु घाटी सभ्यता से ताम्बे से बने दर्पण, कंघी और उस्तरे के साक्ष्य मिले हैं।
सिन्धु घाटी सभ्यता में कंठहार, भुजबंध, कर्णफूल, चूड़ियाँ, करघनी व पायल मुख्य आभूषण थे। सिन्धु घाटी सभ्यता में आभूषणों का उपयोग महिलाओं व पुरुष दोनों द्वारा किया जाता था, महिलाओं द्वारा सौंदर्यवर्धक उत्पादों का उपयोग भी किया जाता था।मनोरंजन के साधन के रूप में पासे का खेल, नृत्य, संगीत, शिकार व पशुओं की लड़ाई प्रमुख थे। सिन्धु घाटी सभ्यता में संभवतः कवच का उपयोग नहीं किया जाता था।
सिन्धु घाटी सभ्यता में अंतिम संस्कार की व्यवस्था
सिन्धु घाटी सभ्यता में मृतकों के अंतिम संस्कार के तीन प्रकार प्रचलित थे – पूर्ण, आंशिक और दाह संस्कार। पूरे शव को भूमि में दफनाना पूर्व समधिकरण कहलाता था। जबकि आंशिक समाधिकरण में शव को पशु-पक्षियों द्वारा खाने के बाद शव को भूमि में दफनाया जाता था। दाह संस्कार में शव को जलाने के बाद उसकी राख को भूमि में दफनाया जाता था।सिन्धु घाटी सभ्यता में पुरुष व महिला दोनों की कब्रों से आभूषणों की प्राप्ति हुई है, कई कब्रों से छल्ले, जेस्पर के मनके तथा मनके से बने हुए आभूषण प्राप्त हुए हैं।
सिन्धु घाटी सभ्यता से प्राप्त कुछ कब्रों में शव के साथ ताम्बे के दर्पण इत्यादि की प्राप्त हुई है, इससे यह यह अनुमान लगाया गया है वे मृत्यु के बाद जीवन में विशवास करते थे। हड़प्पा दुर्ग के दक्षिण-पश्चिम में प्राप्त एक कब्रिस्तान को एच कब्रिस्तान नाम दिया गया है। लोथल में एक कब्र से प्राप्त शव का सिर पूर्व की और पैर पश्चिम की ओर पाए गए, तथा शरीर को करवट लिए हुए दफनाया गया था।
सिन्धु घाटी सभ्यता में कला एवं शिल्प
सिन्धु घाटी सभ्यता में लोग पत्थर के औज़ारों का काफी उपयोग करते थे, इसके साथ-साथ वे कई धातुओं से भी परिचित थे, इसमें कांसा धातु प्रमुख थी। ताम्बे और टिन के मिश्रण ने कांस्य धातु का निर्माण किया जाता हूँ। सिन्धु घाटी सभ्यता में कला व शिल्प काफी विकसित था, कई स्थानों से उत्तम कलाकृतियों की प्राप्त हुई है। सिन्धु घाटी सभ्यता में बर्तन का निर्माण, मूर्तियों का निर्माण व मुद्रा का निर्माण इत्यादि प्रमुख शिल्प थे।
सिन्धु घाटी सभ्यता में कांस्य कलाकृतियाँ, मृणमूर्तियाँ, मनके की वस्तुएं व मुहरें प्राप्त हुई हैं। मनकों का निर्माण कार्नेलियन, जेस्पर, स्फटिक, क्वार्टज़, ताम्बे, कांसे, सोने, चांदी, शंख, फ्यांस इत्यादि का उपयोग किया गया था। सिन्धु घाटी सभ्यता के लोग नाव निर्माण की कला भी जानते थे। औज़ार, हथियार, गहने व बर्तनों के निर्माण के लिए ताम्बा और कांसा धातु का इस्तेमाल किया जाता था। सिन्धु घाटी सभ्यता से फलक, बाट व मनके प्राप्त हुए हैं। मोहनजोदड़ो से हाथ से बुने हुए सूती कपडे का एक टुकड़ा मिला है। उत्तर प्रदेश के आलमगीर मिट्टी की नांद पर बुने हुए वस्त्र के चिह्न मिले हैं। सिन्धु घाटी सभ्यता में नाव के उपयोग के साक्ष्य भी मिले हैं। भारत चांदी की खोज सबसे पहले सिन्धु घाटी सभ्यता में की गयी थी।
मिट्टी से निर्मित बर्तन
मिट्टी से बने बर्तनों को मृदभांड कहा जाता है। सिन्धु घाटी सभ्यता से प्राप्त मृदभांड कुम्हार की चाक से निर्मित हैं। इन बर्तनों पर गाढ़ी लाल चिकनी मिट्टी से सुन्दर चित्र बनाये गए हैं।सिन्धु घाटी सभ्यता में बर्तनों पर वृत्त, वृक्ष तथा मनुष्य की चित्रकारी देखने को मिलती है।
सिन्धु घाटी सभ्यता में बड़ी संख्या में टेराकोटा (पकी हुई मिट्टी) की मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं।चहूंदड़ो और लोथल में मनके बनाने का कार्य किया जाता था। चहूंदड़ो से सेलखड़ी की मुहरें प्राप्त हुई हैं, बालाकोट और लोथल में सीप उद्योग स्थित था। मिट्टी के बर्तनों में एकरूपता थी, कई बर्तनों पर मुद्रा के निशान भी प्राप्त हुए हैं। संभवतः उन बर्तनों का व्यापार भी होता था।
मिट्टी से निर्मित मूर्तियाँ
सिन्धु घाटी सभ्यता में प्राप्त अधिकतर मृणमूर्तियाँ पकी मिटटी से बनी हैं। मिट्टी से बनी मूर्तियों का उपयोग खिलौने के रूप में किया जाता था, यह मूर्तियाँ पूजा की प्रतिमा के रूप में भी बनायीं जाती थी। मिट्टी से बनी मूर्तियों को मृणमूर्तियाँ कहा जाता है। हड़प्पा संस्कृति में मनुष्य के अलावा पशु और पक्षियों, बैल, भैंसा, भेड़, बकरी, बाघ, सूअर, गैंडा, भालू, मोर, बन्दर, तोता, बतख और कबूतर की मृणमूर्तियाँ भी प्राप्त हुई हैं। मानव की मृणमूर्तियाँ ठोस हैं जबकि पशुओं की मृणमूर्तियाँ अन्दर से खोखली हैं।
धातु से बनी मूर्तियाँ
मोहनजोदड़ो, लोथल, कालीबंगा और चंहूदड़ो से धातु से बनी मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं।मोहनजोदड़ो से एक कांसे से बनी नर्तकी की मूर्ति प्राप्त हुई है, इसके गले में कंठहार है और हाथों में चूड़ियाँ व कंगन हैं।
पत्थर से बनी मूर्तियाँ
मोहनजोदड़ो से पत्थर से निर्मित एक पुजारी की मूर्ति प्राप्त हुई है, इस मूर्ति की मूछें नहीं हैं परन्तु दाढ़ी है। मूर्ति के बांयें कंधे पर शाल बनायीं गयी है।इस मूर्ति की आँखे आधी खुली हुई हैं, निचले होंठ मोटे, और उसकी नज़र नाक के अगले हिस्से पर टिकी हुई है। सिन्धु घाटी सभ्यता में एक संयुक्त पशु की मूर्ति भी प्राप्त हुई है, जिसका शरीर भेड़ का सिर हाथी का है। महाराष्ट्र के दैमाबाद से ताम्बे का रथ चलाता मनुष्य, सांड, गैंडा और हाथी की मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं।
सिन्धु घाटी सभ्यता की लिपि
सिन्धु घाटी सभ्यता के लोगों ने लिखने की कला का आरम्भ किया, सिन्धु घाटी सभ्यता की लिपि भावचित्रात्मक है, इसे अभी तक डीकोड नहीं किया सका है। सिन्धु लिपि में 65 मूल चिह्न और 375 से 400 चित्राक्षर हैं। इसमें प्रत्येक अक्षर किसी वस्तु को दर्शाता है, यह लिपि दाई से बायीं ओर और अगली पंक्ति में बाई से दाई ओर लिखी जाती है। लिखने की इस पद्धति को बोस्ट्रोफेदन कहा जाता है। इसमें मछली चिह्न का उपयोग व यू आकार के शब्द का उपयोग सर्वाधिक बार किया गया है। सिन्धु लिपि में लिखे गए अभिलेख लम्बाई में काफी छोटे हैं, सबसे लम्बे अभिलेख में मात्र 26 चिह्न हैं।
सिन्धु घाटी सभ्यता की माप–तोल प्रणाली
सिन्धु घाटी सभ्यता में तोल के लिए 16 अथवा उसके आवर्तकों का उपयोग किया जाता था, जैसे 16, 64, 160, 320, 640 और 12,800 इत्यादि। बाटों के निचले मानदंड द्विआधारी थे, जबकि उपरी मानदंड दशमलव प्रणाली का अनुसरण करते थे। 16 के अनुपात की यह व्यवस्था वर्तमान तक जारी है। वज़न मापने के बाट घनाकार, वर्तुलाकार, बेलनाकार, शंक्वाकार और धोलाकार होते थे। मोहनजोदड़ो से सीप और लोथल से हाथीदांत से निर्मित एक-एक पैमाना मिला है। मापने के लिए डंडे और कांच से बना हुआ एक यंत्र भी बना हुआ है, इस यंत्र में मापने की अलग-अलग इकाइयों के लिए चिह्न बने हुए हैं।
मुहरें
सिन्धु घाटी क्षेत्र के काफी मात्रा में मुहरें प्राप्त हुई हैं, सिन्धु घाटी के अध्ययन में मुहरों की भूमिका अति महत्वपूर्ण है। यहाँ से कई राज्यों व अन्य देशों की मुहरें प्राप्त हुई हैं। इन मुहरों से सिन्धु घाटी सभ्यता के विदेशी व्यापार और अन्य क्षेत्रों के साथ संबंधों के बारे में पता चलता है।सिन्धु घाटी से विभिन्न प्रकार की मुहरें प्राप्त हुई हैं, यह मुहरें बेलनाकार, वर्गाकार, आयताकार, और वृत्ताकार रूप में प्राप्त हुई हैं। यहाँ पर सिन्धु घाटी की मुहरों के अलावा उन क्षेत्रों की मुहरों भी मिली हैं जिनसे सिन्धु घाटी सभ्यता के लोग व्यापार करते थे। यहाँ पर मेसोपोटामिया और दिलमुन की मुहरें भी प्राप्त हुई हैं। यह मुहरें स्टेटाइट, फ्यांस, गोमेद, चर्ट और मिट्टी की बनी हुई हैं।
सिन्धु घाटी सभ्यता से प्राप्त अधिकतर मुहरों पर अभिलेख, एक सींग वाला बैल, भैंस, बाघ, गैंडा, हिरण, बकरी व हाथ के चित्र अंकित हैं। इनमे सर्वाधिक आकृतियाँ एक सींग वाले बैल की हैं।मोहनजोदड़ो, लोथल और कालीबंगा से राजमुन्द्रक प्राप्त हुए हैं, प्राप्त मुहरें में से सर्वाधिक मुहरें चौकोर हैं। सबसे ज्यादा मुहरें मोहनजोदड़ो से प्राप्त हुई हैं, इन मुहरों पर शेर, ऊँट और घोड़े का चित्रण नहीं हैं। मोहनजोदड़ो से प्राप्त एक मुहर पशुपति शिव की आकृति बनी हुई है। मोहनजोदड़ो से प्राप्त एक अन्य मुहर पर पीपल की दो शाखाओं के बीच निर्वस्त्र स्त्री का चित्र अंकित है।
सिन्धु घाटी सभ्यता की धार्मिक व्यवस्था
सिन्धु घाटी सभ्यता में पकी मिट्टी की एक स्त्री की प्रतिमा प्राप्त हुई है, यह संभवतः पृथ्वी देवी की मूर्ति है, इसे उर्वरता की देवी भी कहा जाता है। सिन्धु घाटी सभ्यता में मानव, पशु और वृक्ष तीन रूपों में ईश्वर की उपासना की जाती थी। सिन्धु घाटी सभ्यता में मातृदेवी की उपासनी, पशुपति शिव की उपासना, नाग पूजा, वृक्ष पूजा, पशु पूजा, अग्नि पूजा, जल पूजा, भक्ति और परलोक की धारणा काफी प्रचलित थे। सिन्धु घाटी सभ्यता में धौलावीरा से सरस्वती नदी की पूजा का साक्ष्य भी मिले हैं।
सिन्धु घाटी सभ्यता के लोग यज्ञ से परिचित थे, वे संभवतः पुनर्जन्म, तंत्र मन्त्र, भूत-प्रेत इत्यादि में विशवास करते थे। सिन्धु घाटी में स्वास्तिक चिह्न और चक्र के साक्ष्य में मिले हैं, चक्र सूर्य पूजा का प्रतीक है। कूबड़ वाला सांड सिन्धु घाटी सभ्यता में विशेष पूजनीय था।मोहनजोदड़ो से प्राप्त एक मुहर पर तीन मुख वाले पुरुष की ध्यान मुद्रा में आकृति बनी हुई है, इसके सिर पर तीन सींग हैं। इसके बाई ओर गैंडा और भैंसा जबकि दाई ओर हाथी और बाघ हैं। इस व्यक्ति के आसन के नीचे दो हिरण बैठे हुए हैं, यह पशुपति शिव से काफी मिलता जुलता है।
हड़प्पा से पक्की मिट्टी से बनी स्त्री की मूर्तियाँ काफी संख्या में मिली हैं। कालीबंगा, लोथल और बनावली से हवनकुंड के साक्ष्य मिले हैं, सिन्धु घाटी के लोग संभवतः तंत्र-मन्त्र में काफी विशवास करते थे। कई स्थानों से हवनकुंड के साक्ष्य मिलने के साथ-साथ स्वास्तिक के चित्र भी प्राप्त हुए हैं, इससे सिन्धु घाटी सभ्यता के वैदिक होने का अनुमान लगाया जाता है।
सिन्धु घाटी सभ्यता का पतन
सिन्धु घाटी सभ्यता का पतन कई कारणों से हुआ, अलग-अलग स्थानों के पतन का कारण अलग-अलग है। सिन्धु घाटी सभ्यता के पतन के सन्दर्भ विभिन्न विद्वानों ने अलग-अलग मत दिए हैं।
सिन्धु घाटी सभ्यता के पतन का उसकी समाप्ति नहीं बल्कि उसके परिवर्तन से है। सिन्धु घाटी सभ्यता नगरीय थी, पतन के पश्चात यह ग्रामीण चरण में पहुँच गयी। इस सन्दर्भ में विभिन्न विद्वानों द्वारा अलग-अलग कथन प्रस्तुत किये गए हैं, फिलहाल यह कथन केवल सैधांतिक ही हैं, कोई भी तर्क पुख्ता नहीं है।
गार्डन चाइल्ड और व्हीलर के अनुसार आर्यों के आक्रमणों के कारण सिन्धु घाटी सभ्यता का पतन हुआ। जॉन मार्शल, मैके , एस.आर. राव का अनुसार भयंकर बाढ़ के कारण सिन्धु घाटी सभ्यता समाप्त हुई। ओरल स्टाइन और ए.एन. घोष के अनुसार सिन्धु घाटी सभ्यता अस्तित्व में नहीं रही, जबकि एम.आर. साहनी के अनुसार भूगर्भिक परिवर्तन के कारण इसका पतन हुआ। जॉन मार्शल ने प्रशासनिक असफलता जबकि केनेडी ने प्राकृतिक आपदा को सिन्धु घाटी सभ्यता के पतन का कारण माना है।
सिन्धु सभ्यता का योगदान
सिन्धु घाटी सभ्यता ऐसे बहुत से कार्य हुए, जो मानव इतिहास में किये गए। सिन्धु घाटी सभ्यता के लोगों ने सबसे पहले कपास की खेती आरम्भ की। धर्म, कला, शिल्प, लिपि और रहन सहन में सिन्धु घाटी सभ्यता की छाप अमिट है। सिन्धु घाटी सभ्यता का अद्वितीय नगर नियोजन व प्रशासनिक व्यवस्था उत्तम थी। इसके साथ-साथ धर्म का विकास व परम्पराओं का आरंभ भी इस काल में हुआ।