हुमायूँ

बाबर की मृत्यु के बाद उसका बड़ा पुत्र हुमायूँ शासक बना। वह 1530 में पहली बार शासक बना था। हुमायूँ ने साम्राज्य को अपने अन्य भाइयों में बाँट दिया था। उसे अस्करी को संभल, हिंदाल को मेवात, कामरान को कबूर और कंधार दिया था। कामरान ने पंजाब, मुल्तान और हिस्सार पर भी कब्ज़ा कर लिया था।
आरंभिक शासन
हुमायूँ को शासन के आरम्भ में ही काफी विकट समस्याओं का सामना करना पड़ा। सर्वप्रथम उसे वित्तीय समस्याओं का सामना करना पड़ा। हुमायूँ ने साम्राज्य का विभाजन अपने भाइयों के बीच कर दिया थे, परन्तु उसके भाइयों ने उसका सहयोग नहीं किया। कुछ समय पश्चात् ही शेर शाह सूरी ने उसे हराया और स्वयं शासक बन बैठा।
शासन गवां देने के बाद हुमायूँ को काफी परेशानियों से जूझना पड़ा। उसे ईरान के शाह ने शरण दी। कुछ वर्षों के बाद हुमायूँ ने अपने साम्राज्य को वापस प्राप्त करने के प्रयास करने लगा। शेरशाह सूरी की मृत्यु के बाद शासन का नियंत्रण पुनः हुमायूँ के हाथ में आया।
युद्ध व विजय अभियान
कालिंजर अभियान
यह अभियान हुमायूँ ने कालिंजर के शासक प्रतापरूद्र देव के विरुद्ध चलाया था। प्रतापरूद्र ने हुमायूँ की अधीनता स्वीकार कर ली थी, परन्तु हुमायूँ ने कालिंजर को अपने प्रत्यक्ष नियंत्रण में नहीं लिया। कालिंजर अभियान वर्ष 1531 ईसवी में चलाया गया था।
दौरा का युद्ध
यह युद्ध मुग़ल सेना ने अफगान सेना के विरुद्ध लड़ा था। इस युद्ध में अफ़ग़ान सेना का नेतृत्व महमूद लोदी ने किया था। यह युद्ध गोमती नदी के तट पर लड़ा गया था। इस युद्ध में विजय प्राप्त करने के बाद जौनपुर पर मुगलों का आधिपत्य स्थापित हो गया था।
बहादुरशाह के साथ संघर्ष
हुमायूँ के शासनकाल में गुजरात का शासक बहादुरशाह था। वह शक्तिशाली शासक था। उसने 1531 ईसवी में मालवा पर आधिपत्य स्थापित किया था। इसके बाद 1532 ईसवी में बहादुरशाह ने रायसीन पर आधिपत्य स्थापित किया। इसके अतिरिक्त उसने चित्तोड़ व अजमेर को भी अपनी अधीनता स्वीकार करवाई। वर्ष 1534 ईसवी में अजमेर तथा चित्तोड़ ने बहादुरशाह के साथ संधि की। बहादुर शाह ने हुमायूँ के विरोधियों की सहायता की। बहादुर शाह ने हुमायूँ को इस प्रकार की गतिविधियों से उकसाने का प्रयास किया। अंत में मुगलों और बहादुर शाह के बीच संघर्ष हुआ। हालांकि बहादुर शाह ने तोपखाने की व्यवस्था भी की थी, परन्तु वह इस युद्ध में पराजित हुआ। बहादुर शाह की पराजय के बाद गुजरात के बड़े हिस्से तथा मालवा पर मुगलों का आधिपत्य स्थापित हो गया। इन विजित क्षेत्रों का शासन अस्करी को सौंपा गया था, परन्तु यह नीति गलत साबित हुई। अस्करी गुजरात व मालवा के क्षेत्र का शासन सँभालने में असफल रहा और कुछ समय बाद ही गुजरात का नियंत्रण मुगलों के हाथ से चला गया।
बंगाल पर विजय
वर्ष 1537 ईसवी हुमायूँ ने चुनार पर आधिपत्य स्थापित कर लिया था। उस दौरान शेरखां ने बंगाल पर कब्ज़ा कर लिया था। शेरखां ने बंगाल में काफी लूटपाट की। हुमायूँ के बंगाल पहुँचने से पहले शेर खां वहां से जा चुका था। शेर खां ने गौड़ में काफी लूटपाट व हत्याएं की। इस दृश्य को देखने के बाद हुमायूँ ने गौड़ का पुनर्निर्माण किया और उसका नाम जन्नताबाद रखा।
बंगाल पर नियंत्रण स्थापित करने के बाद हुमायूँ निश्चिन्त हो गया, जबकि शेर खान ने मुग़ल क्षेत्रो पर आक्रमण करके उन पर कब्ज़ा करना शुरू किया। इस दौरान हुमायूँ के भाई हिंदाल ने आगरा पर कब्ज़ा कर लिया। बंगाल से लौटते समय शेर खां और हुमायूँ के बीच संघर्ष हुआ।
चौसा का युद्ध
इस युद्ध में हुमायूँ और शेरखान के बीच युद्ध हुआ, यह युद्ध 26 जून, 1539 ईसवी को हुआ था। इस युद्ध में शेर खां ने हुमायूँ को पराजित किया था।
बिलग्राम का युद्ध
17 मई, 1555 ईसवी को कन्नौज में गंगा नदी के तट पर शेरशाह और मुगलों के बीच युद्ध हुआ। इस युद्ध में शेरशाह ने मुगलों को हराया। इस युद्ध में हारकर हुमायूँ भागकर ईरान चला गया। और दिल्ली पर शेरशाह ने कब्ज़ा कर लिया।
सत्ता में वापसी
मच्छीवारा युद्ध
शेरशाह से हारने के बाद हुमायूँ भागकर ईरान चला गया था। कुछ समय बाद उसने सत्ता को पुनः प्राप्त करने का प्रयास किया। हुमायूँ ने 1553 ईसवी में कामरान को हराया। कामरान को हराने के बाद वह पेशावर की ओर आगे बढ़ा। वर्ष 1554 में हुमायूँ ने लाहौर पर विजय प्राप्त की। इसके बाद हुमायूँ आगे बढ़ते हुए पंजाब होते हुए लुधियाना के निकट मच्छीवारा पहुंचा। मछिवारा में हुमायूँ ने सिकंदर सूर के गवर्नर तातार खान को पराजित किया।
सरहिंद का युद्ध
सरहिंद का युद्ध 22 जून, 1555 को लड़ा गया, इस युद्ध में बैरम खां ने मुगल सेना का नेतृत्व किया था। इस युद्ध में मुगल सेना की विजय हुई थी। इसके पश्चात् मुग़ल सेना ने दिल्ली, आगरा तथा उत्तर भारत के अन्य क्षेत्रों पर अपना नियंत्रण स्थापित किया। इसके बाद 23 जुलाई, 1555 ईसवी को हुमायूँ ने पुनः मुग़ल साम्राज्य की सत्ता को संभाला। सत्ता प्राप्त करने के बाद हुमायूँ अधिक समय तक शासन नहीं कर सका, 27 फरवरी, 1556 ईसवी को पुस्तकालय की सीढ़ियों से गिरकर हुमायूँ की मौत हो गयी। हुमायूँ की मृत्यु पर ब्रिटिश लेखक स्टैनले लेन पूल ने कहा था, “वह जीवन भर ठोकर खाता रहा और अंत में ठोकर खा कर ही मर गया” (He stumbled out of life as he stumbled through it)

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