शंकरदेव
शंकरदेव एक संत, दूरदर्शी, मानवतावादी, समाज सुधारक, कवि, नाटककार, चित्रकार और संगीतकार थे। उनका जन्म 1449 में हुआ। उन्होंने नव-वैष्णव भक्ति आंदोलन के मद्देनजर एक उल्लेखनीय सामाजिक-सांस्कृतिक पुनरुत्थान का नेतृत्व किया। यह पंद्रहवीं और सोलहवीं शताब्दी के दौरान असम में फला-फूला। नव-वैष्णववाद उनके अतिरंजित और प्रेरक नेतृत्व के तहत एक पूर्ण पैमाने पर परिवर्तन लाया गया। शंकरदेव के आंदोलन की एक बहुत ही उल्लेखनीय विशेषता यह थी कि इसने विभिन्न प्रकार के रचनात्मक और कलात्मक क्षेत्रों जैसे साहित्य, संगीत, नृत्य, नाटक, पेंटिंग, मूर्तिकला और वास्तुकला का पूर्ण उपयोग किया और उन्हें नए विश्वास और इसके अभिन्न अंग बना दिया। शंकरदेव के प्रभाव और उनके आंदोलन ने पारंपरिक जीवन के पूरे क्षेत्र में व्याप्त, अक्सर धार्मिक और संप्रदाय विभाजन को खत्म कर दिया। शंकरदेव न केवल असम वैष्णववाद के संस्थापक थे, बल्कि वे एक सामाजिक-सांस्कृतिक वास्तुकार भी थे।
शंकरदेव का धर्म उपनिषद की शिक्षाओं पर सबसे ज्यादा जोर देता है। उनकी धार्मिक शिक्षाएं सभी सांसारिक कष्टों से मुक्ति के लिए मूल नैतिक संहिता पर बल देती हैं। श्रीमंत शंकरदेव का असम वैष्णववाद प्रमुख उपनिषदों के मुख्य सिद्धांतों और भागवत-पुराण और कुछ अन्य वेद ग्रंथों की शिक्षाओं को समाहित करता है। अपने धार्मिक सिद्धांतों का प्रचार करने के लिए शंकरदेव ने साहित्यिक रचनाओं, कविताओं और नाटकों की रचना शुरू की। उन्होंने भगवतम का अनुवाद किया था। यह असमिया साहित्य के लिए उत्साह और प्रेरणा का प्रारंभिक बिंदु था। उनकी बुद्धि हरिशचंद्र उपखान की कविता में स्पष्ट है जो उनकी किशोरावस्था में हुई थी। शंकरदेव ने जिस काव्य कार्य को बहुत प्रसिद्धि दी, वह ‘किरियाना’ है जिसमें 26 कविताएँ और 2,261 दोहे हैं। वह स्पष्ट और छेनी वाले वाक्यांशों के लिए विख्यात है। ‘शिशुलीला’ और ‘आदिदशम’ में भी भगवान कृष्ण के बचपन के मनोरम चित्रण हैं। शंकरदेव का धर्म, सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन के लिए एक नया अर्थ और गहराई लेकर आया। असम के इतिहास में पहली बार उनहिबे समाज में मनुष्य में आध्यात्मिक समानता स्थापित की। उन्होने जाती प्रथा का विरोध किया। प्रदर्शन कला में उनके दो सबसे बड़े योगदान एक अद्वितीय प्रकार के भक्ति गायन थे जिन्हें ‘महान गीत’ कहा जाता है। यह रागों और किस्सों की एक विशिष्ट प्रणाली पर आधारित था। उन्होंने विष्णु के अवतारों की प्रशंसा में छह पौराणिक नाटक लिखे। शंकरदेव संस्कृत के विद्वान थे। उन्होंने अपने नाटकों में शास्त्रीय नाटकीयता के तत्वों को शामिल किया। नाटक आज भी पारंपरिक असमिया रंगमंच पर अपनी पकड़ बनाए हुए हैं। उनका स्वर्गवास 1568 में हुआ था।