भारतीय हस्तशिल्प का इतिहास

भारतीय हस्तशिल्प का एक प्राचीन इतिहास है। भारत में असंख्य शिल्प परंपरा हैं। भारत में फलने-फूलने वाले शिल्प मूल रूप से सामाजिक, आर्थिक और क्षेत्रीय कारकों के अधीन हैं। अतीत के अधिकांश शिल्प अपनी उपयोगितावादी प्रकृति, आम लोगों के लिए उनकी उपलब्धता और घरेलू और विदेशी बाजारों में लोकप्रियता के कारण फलफूल रहे हैं। भारतीय शिल्प के प्रारंभिक संदर्भ सिंधु घाटी सभ्यता (3000 ईसा पूर्व -1700 ईसा पूर्व) के अवशेषों में पाए गए थे। सिंधु घाटी सभ्यता में शिल्प की समृद्ध परंपरा थी। इसे मिट्टी के बर्तन बनाने, गहने, धागा बनाने, धातु, पत्थर और टेराकोटा आदि जैसी विभिन्न मूर्तियों के क्षेत्र में एक तकनीकी प्रतिभा भी मिली है। शिल्पकारों ने स्थानीय लोगों की बुनियादी जरूरतों की आपूर्ति की और अतिरिक्त वस्तुओं का निर्यात भी मुख्य रूप से यात्राओं के माध्यम से प्राचीन अरब देशों में किया। सिंधु घाटी सभ्यता की समृद्ध विरासत 1500 ईसा पूर्व से वैदिक युग में पूरी तरह से समाहित थी। वैदिक साहित्य में काफी शिप संदर्भ हैं। विशेष रूप से ऋग्वेद में मिट्टी, लकड़ी और धातु से बने विभिन्न प्रकार के मिट्टी के बर्तनों का उल्लेख है। इसमें तत्कालीन काल के बहुत से बुनकरों और बुनाई का भी उल्लेख है। अशोक के समय में भारत में 84,000 स्तूपों का निर्माण किया गया था। “सांची स्तूप” इसका एक हिस्सा है। भरहुत, मथुरा, अमरावती, वैशाली, सांची क्षेत्रों में कई मूर्तियां मिलीं। विदेशी आक्रमणकारियों ने अपनी सांस्कृतिक और पारंपरिक गौरव की परंपरा को छोड़कर भारत के शिल्प के इतिहास को गौरवान्वित किया। समय अवधि पहली शताब्दी ईसा पूर्व और पहली शताब्दी ईस्वी के दौरान थी। इनका प्रभाव तक्षशिला, बेग्राम, बामियान, स्वात घाटी आदि से बौद्ध मूर्तियों में देखा जा सकता है। गुप्तों के स्वर्ण युग (320-647) को भारतीय शिल्प के इतिहास का उत्कृष्ट काल माना जाता है। एलोरा के चट्टानों को काटकर बनाए गए मंदिर और अजंता के भित्ति चित्र इसके आदर्श उदाहरण हैं। ये भित्ति चित्र हमें उस समय की जीवन शैली का यथार्थवादी दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं।
भारतीय इतिहास का मध्यकालीन काल शिल्प के विकास के सन्दर्भ में महत्वपूर्ण है। दिल्ली सल्तनत काल के शिल्पकार मिट्टी के बर्तनों, बुनाई, लकड़ी की नक्काशी, धातु के काम, गहने आदि के क्षेत्र में समृद्ध हुए। चोलों का योगदान और विजयनगर साम्राज्य कांसे की मूर्ति, रेशम की बुनाई, आभूषण, मंदिर की नक्काशी के क्षेत्र में आज भी अच्छा हुआ है। मध्य भारत से पत्थर की नक्काशी का बेहतरीन उदाहरण चंदेलों द्वारा निर्मित खजुराहो मंदिरों के रूप में देखा जा सकता है। समृद्ध और अलंकृत लकड़ी और पत्थर की नक्काशी उड़ीसा के पुरी में जगन्नाथ के मध्ययुगीन मंदिर में पाई जा सकती है। शिल्प के इतिहास में मुगल काल स्वर्णिम काल था। मुगल अपने साथ एक समृद्ध विरासत लेकर आए, जिसे उन्होंने फारसी प्रदेशों से अपनाया था। उन्होंने जड़ाई का काम, कांच की नक्काशी, कालीन बुनाई, ब्रोकेड, तामचीनी आदि जैसी नई तकनीकें प्रदान कीं। मुगल लघु चित्रों ने राजस्थानी, कांगड़ा, पहाड़ी आदि चित्रों के कई भारतीय स्कूलों की परंपराओं को भी प्रभावित किया। मुगलों का प्रसिद्ध मयूर सिंहासन कीमती पत्थर के सजावटी कार्य और धातु शिल्प के उत्तम उदाहरणों में से एक है।
वर्तमान परिदृश्य में भारत में शिल्प का विकास महत्वपूर्ण है। प्रत्येक भारतीय राज्य की अपनी अनूठी संस्कृति, अपने स्वयं के शिल्प हैं।

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