प्राचीन भारतीय इतिहास : 8 – उत्तर वैदिक काल- समाज, अर्थव्यवस्था, राजनीति और धर्म

उत्तर वैदिक काल में राजनीतिक स्थिति

उत्तर वैदिक काल में राजनीतिक व्यवस्था में महत्वपूर्ण परिवर्तन आये।उत्तर वैदिक काल में जनजातीय व्यवस्था धीरे-धीरे समाप्त होने लगी।इस दौरान कई क्षेत्रों में छोटे-छोटे राज्य अस्तित्व में आने लगे। जन का स्थान जनपद द्वारा लिया गया। अब क्षेत्रों पर आधिपत्य के लिए युद्ध आरम्भ हुए, कई कबीले व राज्यों ने मिलकर बड़े व ताकतवर राज्यों का निर्माण किया। पुरु और भरत से मिलकर कुरु की स्थापना हुई, तुर्वश और क्रिवी से मिलकर पांचाल की स्थापना हुई। इस काल में जनपरिषदों का महत्त्व समाप्त हो गया, विदर्थ पूरी तरह नष्ट हो गयी। और स्त्रियों को सभा की सदस्यता से बाहर रखा गया। इस दौरान राजा अधिक शक्तिशाली थे, राज्य पर उसका पूर्ण अधिकार व नियंत्रण था।

उत्तर वैदिक काल में राज्यों का क्षेत्रफल अपेक्षाकृत बड़ा था। इस दौरान क्षेत्रों पर कब्ज़ा करने के उद्देश्य से युद्ध किये जाने लगे।राज्यों के क्षेत्रफल में वृद्धि होते से राजा शक्तिशाली बने, इस दौरान राष्ट्र शब्द का उपयोग आरम्भ हुआ। राजा को चुनाव के द्वारा चुना जाता था,वह प्रजा से भेंट अथवा चढ़ावा प्राप्त करता था। इस चुने हुए राजा को “विशपति” कहा जाता था। शतपथ ब्राह्मण में उस राजा के लिए राष्ट्र नामक शब्द का उपयोग किया गया है, जो निरंकुशतापूर्वक प्रजा की सम्पति का उपभोग करता है। बलि के अतिरिक्त भाग और शुल्क नामक कर का उल्लेख भी किया गया है।

इस काल के दौरान कोई भी राजा स्थाई सेना नहीं रखता था। इस दौरान स्थपति और शतपति नामक दो प्रांतीय अधिकारीयों के नाम का उल्लेख मिलता है। स्थपति सीमान्त प्रदेश का प्रशासक और शतपति 100 ग्रामों का समूह का अधिकारी होता था। निम्न स्तर के प्रशासन पर ग्रामीण क्षेत्र के अध्यक्ष उत्तरदायी थे।प्रशासन में राजा की सहायता करने के लिए विभिन्न अधिकारी होते थे, शतपथ ब्राह्मण में इन्हें रत्निन कहा गया है। यह 12 रत्निन पुरोहित, सेनानी, युवराज, महिषी (रानी), सूत (राजा का सारथी), ग्रामणी (ग्राम का मुखिया), प्रतिहार (द्वारपाल), कोषाध्यक्ष, भागदुध (कर संग्रहकर्ता), अक्षवाप (पासे के खेल में राजा का सहयोगी), पालागल (सन्देशवाहक) और गोविकर्त्तन (शिकार में राजा की सहायता करने वाला)। यह सभी अधिकारी राजा के प्रत्यक्ष नियंत्रण में होते थे।

उत्तर वैदिक काल में सामाजिक स्थिति

वैदिक काल में व्यवसाय के आधार पर समाज को विभिन्न वर्गों में बांटा गया था, परन्तु समय के साथ-साथ यह व्यवस्था जन्म-आधारित बन गयी। धीरे-धीरे यह व्यवस्था समाज का अंग बन गयी। उत्तरवैदिक काल में वर्ण व्यवस्था धीरे-धीरे जाति व्यवस्था में बदलने लगी। इसके कारण आर्यों का विभाजन चार प्रमुख वर्गों में हो गया, यह चार वर्ग ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र थे। इस काल में यज्ञ व अन्य धार्मिक अनुष्ठानों में वृद्धि होने के कारण ब्राह्मणों की प्रतिष्ठता में वृद्धि हुई। धीरे-धीरे विभिन्न सामाजिक वर्ग जाति के रूप में उभर कर आने लगे और धीरे-धीरे यह व्यवस्था कठोर बनने लगी।

उत्तर ऋग्वेदिक काल में खेती और पशुपालन

इस काल में पश्चिमी उत्तर प्रदेश, पूर्वी पंजाब और राजस्थान में लोहे का उपयोग आरम्भ हो गया था। कृषि आर्यों का प्रमुख व्यवसाय था, इस काल में कृषि का काफी विकास हुआ। कई स्थानों से कृषि सम्बन्धी लोहे के उपकरण भी प्राप्त हुए हैं।काठक संहिता में 24 बैलों द्वारा हल खींचे जाने का विवरण किया गया है।अथर्ववेद में पृथ्वीवेन द्वारा कृषि और हाल की उत्पत्ति की व्याख्या की गयी है। हल का निर्माण लकड़ी से किया जाता था। उत्तर ऋग्वेदिक काल में धान, गेहूं, धान, जौ, उड़द, मूंग और मसूर जैसे अन्न का उत्पादन किया जाता था। शतपथ ब्राह्मण में कृषि की विभिन्न तकनीकों का वर्णन किया गया है, इसमें जुताई, बुवाई, कटाई और मड़ाई की व्याख्या की गयी है। इस दौरान उर्वरक का उपयोग प्रारंभ हो चुका था।

कृषि सम्बन्धी समस्याओं का समाधान करने के लिए मंत्रोचारण किया जाता था। इस दौरान सिंचाई के लिए कुओं व नहरों को उपयोग किया जाता था। अनाज को मापने के लिए उर्दर नामक पात्र का उपयोग किया जाता था।

शिल्प व्यापार

उत्तर वैदिक काल में आर्यों का झुकाव पशुपालन की अपेक्षा कृषि की ओर अधिक हुआ। इस दौरान नई कलाओं और शिल्पों का विकास भी हुआ। तत्कालीन साहित्य से लुहारों व धातुकारों के सम्बन्ध में जानकारी मिलती है।

इस दौरान चर्मकार, कुम्हार और बढई की महत्ता में काफी वृद्धि हुई। उत्तरवैदिक साहित्य में कपास का उल्लेख नहीं मिलता है, हालांकि उन शब्द का उपयोग ऋग्वेदिक साहित्य में कई बार किया गया है। कढ़ाई व बुनाई का कार्य मुख्य रूप से महिलाओं द्वारा किया जाता था। कढ़ाई करने वाली स्त्रियों को पेशस्करी कहा जाता था। ऋग्वेदिक सभ्यता पूर्णतः ग्रामीण थी, परन्तु उत्तर वैदिक संस्कृति में प्रारंभिक नगरों का संकेत मिलता है। तैत्तरीय आरण्यक में सबसे पहले “नगर” का उल्लेख किय गया है, हस्तिनापुर और कौशाम्बी प्रारंभिक नगर थे।

उत्तर वैदिक काल में आर्य सागरों के बारे में जानते थे। संभवतः इस काल में हाथी को पालतू बनाया जाता था, हाथी के लिए उत्तर वैदिक साहित्य में हस्ति व वारण शब्द का उपयोग किया गया है। उत्तर वैदिक काल में लाल मृदभांड का उपयोग सर्वाधिक किया जाता था, लोग मिट्टी से बनी वस्तुओं का उपयोग बड़े पैमाने पर करते थे।

उत्तर वैदिक में अर्थव्यवस्था

उत्तर वैदिक काल में लेन-देन के लिए मुद्रा के स्थान पर वस्तु विनिमय प्रणाली का उपयोग किया जाता था। इस दौरान नियमित सिक्के प्रचलन में नहीं थे।अथर्ववेद में सर्वप्रथम चांदी का उल्लेख किया गया है। शतपति ब्राह्मण में महाजनी प्रथा का उल्लेख है, इसमें ऋणदाता को कुसीदिन कहा गया है। इस काल में निष्क, शतमान, पाद, कृष्णल इत्यादि माप की प्रमुख ईकाइया थीं। अनाज मापने के लिए द्रोण का उपयोग किया जाता है।

उत्तर वैदिक काल में धार्मिक स्थिति

उत्तर वैदिक काल में बहु-देववाद प्रचलन में था। लोगों द्वारा उपासना का मुख्य उद्देश्य भौतिक सुखों की प्राप्ति करना था।इस काल में प्रजापति, विष्णु व शिव महत्वपूर्ण देवता बन गए थे, जबकि इंद्र, अग्नि और वरुण का महत्त्व अपेक्षाकृत कम हो गया था। सृष्टि के सृजन से प्रजापति को जोड़ा जाने लगा। वरुण देवता को मात्र जल का देवता माना जाने लगा। इस दौरान यज्ञ का महत्त्व काफी अधिक हो गया था, और धार्मिक अनुष्ठान पहले की अपेक्षा काफी जटिल हो गए थे।ऋग्वेद में 7 पुरोहितों का उल्लेख किया गया था, जबकि उत्तर वैदिक काल में 14 पुरोहितों का उल्लेख किया गया था। उत्तर वैदिक काल में प्रत्येक वेद के अलग-अलग पुरोहित बन गए थे। सामवेद से उद्गाता, यजुर्वेद से अध्वर्यु, अथर्ववेद से ब्रह्मा को जोड़ा जाने लगे। सभी यज्ञों का पर्यवेक्षण ऋत्विज नामक मुख्य पुरोहित द्वारा किया जाता था।

मृत्यु की चर्चा सबसे पहले शतपथ ब्राह्मण में की गयी थी, जबकि मोक्ष का उल्लेख सर्वप्रथम उपनिषद में मिलती है। पुनर्जन्म की अवधारणा का उल्लेख वृहदारण्यक उपनिषद में किया गया है। ईशोपनिषद् में निष्काम कर्म के सिद्धांत की व्याख्या की गयी है। इस दौरान मुख्य यज्ञ वाजपेय, अश्वमेध और पुरुषमेध यज्ञ थे।

यज्ञ धार्मिक कर्मकांड

इस काल में यज्ञ व अन्य धार्मिक कर्मकांडों में काफी वृद्धि हुई, यह कर्मकांड काफी जटिल व गूढ़ थे।इस काल में पश्चिमी उत्तर प्रदेश, पूर्वी पंजाब और राजस्थान में लोहे का उपयोग आरम्भ हो गया था। उत्तर वैदिक काल में यज्ञ को दो मुख्य भागों हविर्यज्ञ और सोमयज्ञ में विभाजित किया गया। हविर्यज्ञमें अग्निहोत्र, दशपूर्णमॉस, चतुर्मास्य, आग्रायण, पशुबलि, सौत्रामणी और पिंड पितृयज्ञ सम्मिलित थे। जबकि सोमयज्ञ में अग्निष्टोम, अत्याग्निष्टोम, उक्श्य, षोडशी, वाजपेय, अतिरात्र और आप्तोयीम यज्ञ शामिल थे।

राजसूय नामक यज्ञ राजा के राज्याभिषेक के लिए जाता था, इसमें सोम ग्रहण किया जाता था। राजसूय यज्ञ के दौरान राजा रत्निनी के घर जाता था। शतपथ ब्राह्मण में इसका उल्लेख मिलता है। राजसूय यज्ञ में राजा का अभिषेक सात प्रकार के जल से होता था।

अश्वमेध यज्ञ में राजा द्वारा एक घोडा छोड़ा जाता था, यह घोडा जिन क्षेत्रों से बिना किसी अवरोध के होकर गुज़रता था, वह क्षेत्र राजा का अधीन हो जाते थे। यह यज्ञ राजकीय यज्ञों में सबसे अधिक महत्वपूर्ण व प्रसिद्ध था। शतपथ ब्राह्मण में राजा भरत दोष्यंती और शतानिक सत्राजित द्वारा अश्वमेध यज्ञ किया गया था।

वाजपेय यज्ञ मर राजा रथों की दौड़ का आयोजन करता था, इसमें राजा को सहयोगियों द्वारा विजयी बनाया जाता था। इस यज्ञ में राजा सम्राट बनता था, यह यज्ञ 17 दिन में सम्पूर्ण होता था।

अग्निष्टोम यज्ञ में सोम रस ग्रहण किया जाता था। इस यज्ञ से पहले यज्ञ करने वाला व्यक्ति और उसकी पत्नी एक वर्ष तक सात्विक जीवन व्यतीत करते थे।

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