जैन साहित्य

जैन साहित्य अत्यंत विशाल है, यह अधिकतर अपभ्रंश, प्राकृत और संस्कृत भाषा में लिखा गया है। महावीर स्वामी की गतिविधियों का प्रमुख केंद्र मगध रहा, इसलिए उन्होंने उपदेश भी लोक भाषा आर्धमागधी में दिए। महावीर स्वामी के उपदेश जैन आगमों में सुरक्षित हैं। जैन धर्म के श्वेताम्बर समुदाय द्वारा आगमों को प्रमाणिक माना जाता है, परन्तु दिगंबर समुदाय इन्हें प्रमाणिक नहीं मानता।
दिगंबर सम्प्रदाय का प्राचीन साहित्य शौरसेनी भाषा में है, बाद में अपभ्रंश तथा अन्य स्थानीय भाषाओँ में साहित्य की रचना की गयी। प्राचीन जैन साहित्य के ग्रन्थ संख्या में सर्वाधिक और काफी प्रमाणिक भी माने जाते हैं। इन ग्रंथों को पूर्व कहा जाता है। 14 पूर्वों में महावीर के सिद्धांतों का संकलन है। ऐसा कहा जाता है की इन ग्रंथों की जानकारी केवल भद्रबाहु को ही थी। जब भद्रबाहु दक्षिण की ओर चले गए तो स्थलबाहु की अध्यक्षता में एक सभा आयोजित की गयी, इस सभा में 14 पूर्वों का स्थान 12 अंग ने ले लिया। जैन रचनाकारों ने पुराण काव्य, चरित काव्य, कथा काव्य तथा रास काव्य इत्यादि ग्रंथों की रचना की। प्रमुख जैन कवी स्वयंभू, पुष्प दन्त, हेम चन्द्र और सोमप्रभ सूरी हैं।
जैन साहित्य आगम में पूर्व के स्थान पर 12 अंग, 12 उपनग, 10 प्रकीर्ण, 6 छेद सूत्र, 4 मूल सूत्र तथा २ मिश्रित ग्रन्थ शामिल हैं। दूसरे जैन सम्मेलन में सभी अगम साहित्य को लिपिबद्ध किया गया, जिसमे 11 अंगो को लिपिबद्ध किया गया।
बारह अंग
आचारंग सुत्त में जैन भिक्षुओं द्वारा पालन किये जाने नियमों का वर्णन है।
सूयग दांग में जैन धर्म के बाद के मतों का खंडन किया गया है,और उन मतों को निषिद्ध बताया गया है।
ठानांग में जैन धर्म के विभिन्न सिद्धांतों का वर्णन किया गया है।
समवायंग सुत्त तीसरे अंग का भाग माना जाता है।
भगवती सुत्त में महावीर के जीवन और कृत्यों और अन्य सम्कालिकों के साथ उनके संबंधों का वर्णन किया गया है। अपने प्रिय शिष्य इंदुभूति के साथ उनके वार्तालाप के माध्य से वे जैन सिद्धांतों का प्रतिपादन करते हैं।
नायाधम्मकहा सुत्त में महावीर की शिक्षाओं का वर्णन कथा, पहेलियों आदि के माध्यम से किया गया है।
उवासगदसुओं सुत्तों में जैन उपासकों के विधि, आचार और नियमों का संग्रह किया गया है। तपस्या के बल पर स्वर्ग प्राप्त करने वाले व्यापारियों का उल्लेख भी इसमें किया गया है।
अंत गदसाओं में उन भिक्षुओं का वर्णन किया गया है जिन्होंने तप द्वारा शरीर का अंत करके स्वर्ग प्राप्त किया।
अणुत्तरोववाईय दसाओं में भी तप द्वारा शरीर को अनंत कर स्वर्ग प्राप्त करने वाले भिक्षुओं का वर्णन किया गया है।
पणहावागरणाइ में जैन धर्म से सम्बंधित पांच महाव्रतों और नया नियमों की व्याख्या की गयी है।
विवाग सुयम में अच्छे बुरे कर्म के फलों का विवरण दिया गया है जो व्यक्ति को मृत्यु के पश्चात् मिलते हैं।
दिट्टीवाय सम्प्रति अप्राप्य है, इसके विषय में अन्य ग्रंथों से छिट-पुट उल्लेख मिलते हैं।
बारह उपांग
उपरोक्त बारह अंगो से सम्बाहित एक-एक ग्रन्थ हैं, जिन्हें उपांग कहा जाता है। इनमे ब्रह्माण्ड का वर्णन, प्राणियों का वर्गीकरण, खगोल विद्या, काल विभाजन, मरणोत्तर जीवन का वर्णन किया गया है ।
12 उपांग निम्नलिखित हैं :
आपपातिक
राजप्रश्नीय
जीवभिगम
प्रज्ञापना
जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति
चंद प्रज्ञप्ति
सूर्य प्रज्ञप्ति
निरयावली
कल्पावसंतिका
पुष्पिका
पुष्प चूलिका
वृष्णि दशा
दस प्रकीर्ण
प्रकीर्ण प्रमुख ग्रंथों के परिशिष्ट हैं, इनका जैन साहित्य में काफी महत्त्व है।
चतु:शरण
आतुर-प्रयाख्यान
भक्तिपरिज्ञा
संस्तार
तंदुलवैतालिक
चन्द्रवैध्यक
गणीविद्या
देवेंद्रस्त्व
वीरस्तव
महाप्रयाख्यान
छेदसूत्र
छेदसूत्र की संख्य 6 है, इनमे जैन भिक्षुओं के लिए उपयोग विधि-नियमों का वर्णन किया गया है। प्रमुख 6 छेदसूत्र निम्नलिखित हैं :
निशीथ
महानिशीथ
व्यवहार
आचारदशा
कल्प
पञ्चकल्प
मूल सूत्र
मूलसूत्र की संख्या चार है, इनमे जैन धर्म के उपदेश, भिक्षुओं के कर्तव्य, विहार के नियन व यम नियम इत्यादि की व्याख्या की गयी है। उत्तराध्ययन, षडावश्यक, दशवैकालिक और पिंडनिर्युक्ति अथवा पाशिक सूत्र प्रमुख मूल सूत्र हैं।
नांदी सूत्र तथा अनुयोग द्वार
यह एक प्रकार के विश्व ज्ञान कोष हैं। इनमे भिक्षुओं के लिए आचरण से सम्बंधित सभी बाते लिखी गयी हैं। साथ ही साथ इसमें कुछ लौकिक बातों का वर्णन भी किया गया है। यह गद्य व पद्य दोनों शैलियों में लिखे गए हैं।
जैन साहित्य के अन्य ग्रन्थ
जैन धर्म में अन्य ग्रन्थ परिशिष्टपर्वन, आवश्यक चूर्णी, कालिकापुराण, आदिपुराण, उत्तरपुराण, पुरुषचरित, समरइचकथा तथा जिषटिशलाका प्रमुख हैं। भद्रबाहू द्वारा रचित कल्पसूत्र, हरिभद्र सूरी द्वारा रचित अनेकांत विजय एवं धर्मबिंदु तहत सर्व नंदी द्वरा रचित लोकविभंग प्रमुख जैन साहित्य हैं।

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