प्राचीन भारतीय इतिहास : 21 – मौर्य साम्राज्य में प्रशासन

मौर्य काल में राजधानी पाटलिपुत्र में स्थित थी। प्रशासन को सुचारू रूप से चलने के लिए साम्राज्य को चार प्रमुख भागों में बांटा गया था। पूर्वी क्षेत्र की राजधानी तौसाली थी। उत्तरी क्षेत्र की राजधानी तक्षशिला थी जबकि पश्चिमी उज्जैन में स्थित थी। दक्षिणी क्षेत्र की राजधानी सुवर्णगिरी थी। मौर्य प्रशासन की जानकारी का मुख्य स्त्रोत कौटल्य का अर्थशास्त्र और यूनानी लेखक मेगस्थनीज़ की इंडिका से मिलती है। अशोक के अभिलेखों से भी इस सम्बन्ध महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है।

केंद्रीय प्रशासन

मौर्यकाल में प्रशासन मुख्य रूप से राजा में ही निहित था। प्रशासन के प्रमुख अंगों कार्यपालिका, व्यवस्थापिका एवं न्यायपालिका पर उसका नियंत्रण होता था। कौटिल्य की अर्थशास्त्र एवं अशोक के शिलालेख में मंत्रिपरिषद के बारे में चर्चा की गयी है। पतंजलि द्वारा रचित महाभाष्य में भी चन्द्रगुप्त मौर्य के के काल में सभा का वर्णन किया गया है। मंत्रिपरिषद के सदस्यों का चुनाव योग्यता के आधार पर किया जाता था। पुरोहित, सेनापति, सन्निधाता और युवराज सम्राट की मंत्रिपरिषद के प्रमुख सदस्य थे।

कौटिल्य द्वारा रचित पुस्तक अर्थशास्त्र में निम्नलिखित तीर्थों का वर्णन किया गया है :

· पुरोहित प्रमुख धर्माधिकारी, प्रधानमंत्री
· समाहर्ता राजस्व अधिकारी का प्रधान
· सन्निधाता राजकीय कोषाध्यक्ष
· सेनापति युद्ध विभाग का मंत्री
· युवराज राजा का उत्तराधिकारी
· प्रदेष्टा फौजदारी न्यायालय का न्यायधीश
· नायक सेना का संचालक
· कर्मान्तिक उद्योग धंधे का प्रधान निरीक्षक
· व्यवहारिक दीवानी न्यायालय का न्यायधीश
· मंत्रिपरिषदाध्यक्ष मंत्रिपरिषद का अध्यक्ष
· दंडपाल सेना की सामग्रियों को जुटाने वाला प्रधान अधिकारी
· अंतपाल सीमावर्ती दुर्गों का रक्षक
· दुर्गपाल भीतरी दुर्गों काप्रबंधक
· नागरक नगर का प्रमुख अधिकारी
· प्रशास्ता राजकीय कागजातों को सुरक्षित रखने वाला तथा राजकीय आज्ञा को लिपिबद्ध करने वाला
· दोवारिक राजमहलों की देख-रेख करने वाला प्रधान अधिकारी
· अन्तर्वशिक सम्राट की अंगरक्षक सेना का प्रधान अधिकारी
· आटविक वन विभाग का प्रधान अधिकारी

कौटिल्य के अर्थशास्त्र में वर्णित अध्यक्ष

· पण्याध्यक्ष वाणिज्य विभाग का अध्यक्ष
· सुराध्यक्ष आबकारी विभाग का अध्यक्ष
· सूनाध्यक्ष बूचड़खाने का अध्यक्ष
· गणिकाध्यक्ष गणिकाओं का अध्यक्ष
· सीताध्यक्ष कृषि विभाग का अध्यक्ष
· अकराध्यक्ष खान विभाग का अध्यक्ष
· कुप्याध्यक्ष वनों का अध्यक्ष
· कोष्ठगाराध्यक्ष कोष्ठगार का अध्यक्ष
· आयुधगाराध्यक्ष आयुधगार का अध्यक्ष
· शुल्काध्यक्ष व्यापार कर वसूलने वाला
· सूत्राध्यक्ष कताई-बुनाई विभाग का अध्यक्ष
· लोहाध्यक्ष धातु विभाग का अध्यक्ष
· लक्ष्नाध्यक्ष छापेखाने का अध्यक्ष
· गो-अध्यक्ष पशुधन विभाग का अध्यक्ष
· विविताध्यक्ष चरागाहों का अध्यक्ष
· मुद्राध्यक्ष पासपोर्ट विभाग का अध्यक्ष
· नवाध्यक्ष जहाजरानी विभाग का अध्यक्ष
· पत्त्नाध्यक्ष बन्दरगाहों का अध्यक्ष
· संस्थाध्यक्ष व्यापारिक मार्गों का अध्यक्ष
· देवताध्यक्ष धार्मिक संस्थाओं का अध्यक्ष
· पोताध्यक्ष माप-तौल का अध्यक्ष
· मानाध्यक्ष दूरी और समय से सम्बंधित साधनों की नियंत्रित करने वाला अध्यक्ष
· अश्वाध्यक्ष घोड़ों का अध्यक्ष
· हस्ताध्यक्ष हाथियों का अध्यक्ष
· सुवर्णाध्यक्ष सोने का अध्यक्ष
· अक्षपटलाध्यक्ष महालेखाकार

 प्रांतीय प्रशासन

मौर्यकाल में प्रशासन में कुशलता के लिए साम्राज्य को आरम्भ में चार प्रान्तों में बांटा गया था, बाद में अशोक के कार्यकाल में प्रान्तों की संख्या पांच हो गयी। यह पांच प्रान्त प्राची, उत्तरापथ, दक्षिणापथ, अवन्ती राष्ट्र और कलिंग थे। उत्तरापथ की राजधानी तक्षशिला, दक्षिणापथ की सुवर्णगिरी, अवन्ती की उज्जयिनी, कलिंग की तोसाली और प्राची की राजधानी पाटलिपुत्र थी।

प्रान्तों पर प्रशासन के लिए कुमार को नियुक्त किया जाता था, यह कुमार राज वंश से सम्बंधित होते थे। प्रातों को आगे और भागों जिले और ग्राम में बांटा जाता था। ग्राम प्रशासन की सबसे छोटी इकाई थी। सौ गावों के समूह को संग्रहण कहा जाता था। सभी प्रशासनिक इकाइयों में प्रशासन के लिए अलग-अलग अधिकारियों की नियुक्ति की जाती थी।

नगर प्रशासन

मौर्यकालीन नगर व्यवस्था की जानकारी मेगास्थनीज़ की पुस्तक इंडिका से मिलती है। इस पुस्तक में मेगास्थनीज़ ने नगर के प्रशासन के लिए 6 समितियों का वर्णन किया है, यह 6 समितियां व उनके कार्य निम्नलिखित हैं :-

प्रथम समिति – उद्योगों का निरीक्षण करना।

द्वितीय समिति – क्षेत्र में आने वाले विदेशियों की देखरेख करना।

तृतीय समिति – इस समिति का कार्य जनगणना करना था।

चतुर्थ समिति – इस समिति का कार्य व्यापार व वाणिज्य की व्यवस्था करना था।

पंचम समिति – इस समिति द्वारा विक्रय व्यवस्था इत्यादि की व्यवस्था की जाती थी।

षष्ठ समिति – बिक्री इत्यादि की व्यवस्था।

यूनानी लेखक मेगास्थनीज़ ने अपनी पुस्तक इंडिका में पाटलिपुत्र के नगर प्रशासन के वर्णन किया है। पाटलिपुत्र नगर का प्रशासन 30 सदस्यों के समूह द्वारा किया जाता था। इसकी कुल 6 समितियां होती थीं तथा प्रत्येक समिति के 5 सदस्य होते थे। इस दौरान नगर परिषद् के द्वारा जनकल्याण कार्य जैसे मार्ग निर्माण, चिकित्सालय निर्माण व शिक्षा की व्यवस्था इत्यादि जैसे कार्य किये जाते थे।

न्याय प्रशासन

मौर्यकाल में विभिन्न किस्म के मामलों के लिए अलग-अलग न्यायालयों की व्यवस्था थी। ग्राम न्यायलय सबसे निम्नतर का न्यायालय था। इस न्यायालय में ग्राम का प्रधान व गाँव ने बुज़ुर्ग लोगों द्वारा न्याय किया जाता था। राजा का न्यायालय मौर्यकाल का सर्वोच्च न्यायालय था।

सैन्य प्रशासन

मौर्यकाल में साम्राज्य के विस्तार का एक प्रमुख कारण उनकी संगठित व सुव्यवस्थित सेना थी। मौर्यकाल में पैदल सेना, घुड़सवार सेना, गज सेना, रथ सेना व नौ सेना प्रमुख थी। यह सेनाएं किसी भी दशा में राज्य की सुरक्षा करने में सक्षम थीं। सैन्य प्रबंध के सर्वोच्च अधिकारी को अंतपाल कहा जाता था। यूनानी लेखक ने अपनी पुस्तक में मौर्यकालीन सेना का वर्णन किया है, मेगास्थनीज़ के अनुसार मौर्य सेना में 6 लाख पैदल सेना, 50 हज़ार घुड़सवार सैनिक, 9 हज़ार हाथी और 800 रथसवार सैनिक थे।

समिति कार्य
प्रथम समिति जल सेना की व्यवस्था
द्वितीय समिति यातायात एवं रसद की व्यवस्था
तृतीय समिति पैदल सनिकों की देख-रेख
चतुर्थ समिति अश्वारोहियों की सेना की देख-रेख
पंचम समिति गजसेना की देख रेख
छठी समिति रथ सेना की देख रेख

गुप्तचर व्यवस्था

संभवतः मौर्यकाल में सर्वप्रथम गुप्तचरों को इतने बड़े स्तर पर नियुक्त किया गया। राज्य को आंतरिक विद्रोह व बाहरी आक्रमण से बचाने में गुप्तचरों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण थी। यह राज्य की सुरक्षा सम्बन्धी सूचना सेना को देते थे। गौरतलब है कि इस काल में स्त्रियाँ भी यह कार्य करती थीं। मौर्यकाल में संस्था और संचरा नामक दो गुप्तचर संस्थाएं अस्तित्व में थीं।

राजस्व प्रशासन

मौर्य में पण नामक मुद्रा प्रचलन में थी। कर्मचारियों को इसी मुद्रा में वेतन दिया जाता था। मौर्य साम्राज्य में आय का मुख्य स्त्रोत कृषि तथा अन्य भूमि करों से प्राप्त होने वाला राजस्व था। मौर्यकाल में दुर्ग, राष्ट्र, सेतु, व्रज, सीता, प्रणय, हिरनी, कुछ गाँव द्वारा इकट्ठे दिया जाना वाला कर, वर्तनी तथा पिन्द्कर राजस्व के प्रमुख स्त्रोत थे। कृषि योग्य भूमि पर कुल उत्पादन का एक चौथाई या छठा भाग भू-राजस्व या लगान के रूप में वसूल किया जाता था। कई क्षेत्रों में राज्य द्वारा सिंचाई की सुविधा उपलब्ध करवाई जाती थी, ऐसे क्षेत्रों से 1/3 कर लिया जाता था।

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